Saturday, 3 October 2020

डायरी : 2 October 2020


कुछ समय से मुलाकातें टलती रही या टाल दी गई लेकिन कल फोन आया तो यूँ ही मैं निकल गया मिलने।

किसी चीज़ को जीने में मजा तब आता है जब उसको पाने के लिए आपने कुछ दिया हो और मैं तो दोपहर की नींद और पैदल चलने की ऊर्जा दोनों देकर आया था।

   भौगोलिक परिस्थिति के दायरों में सिमटे लोग जहाँ सुस्ता रहे थे वहाँ एक ओर हम किसी गुजरी शाम को लेकर बैठ गये।

कुछ इन दिनों की बातें और बीते वक्त की  ग़ज़लों ने चाय की टपरी से होते हुए जैसलमेर रोड़ के ओवरब्रिज की सीढ़ियों पर पटक दिया।

"अभिजीत चाय पीते हुए  कह रहा है कि अच्छा लग रहा है इन दिनों ये सब"

  लेकिन मैं सोच रहा होता हूँ कि सच में प्यार का पैमाना त्याग है तो अभिजीत का प्यार मेरे प्रेम से बड़ा है क्योंकि अभिजीत आमतौर पर चाय नहीं पीते, और मुझे नही लगता कि मैं कभी दोस्ती में अपने लंग्स ख़राब करूँगा ।

ख़ैर,  चाय बहुत अच्छी बनी थी और इसी अच्छी चीज़ के खत्म होने के साथ हमारी मुलाकात भी खत्म हो गई ....।


 

Sunday, 14 April 2019

लड़कियाँ

अक्सर मैं देखता हूँ छोटे शहरों,

गाँवों की लड़कियों को

जो अभी फुदक कर उम्र के कमसिन दौर में आई है

जिसकी ज़ुल्फ चोटी से छूटकर आ जाती है

चेहरे पर अठखेलियां करने ।

जब वो चूल्हा फूँकने या लिखने को झुकती है ।

तब वो ज़ुल्फ़ों को फिर से 

चेहरे पर आने का न्योता देकर 

कान के पीछे फंसाने के बजाए 

जकड़ लेती हेयर क्लिप से ,

जिस प्रकार वो खुद जकड़ी होती है 

समाज की बेड़ियों से ।

शायद यही वजह है कि मैं छिड़ता हूँ 

तमाम हेयर क्लिप से,

उन्हें पिघलाना चाहता हूँ और बनाना चाहता हूँ मोटर का पहिया 

जिसके सहारे वो लड़की तमाम बंधनों को काटकर उड़ सके स्वच्छंद आसमां में ।

इससे आगे भी देखता हूँ 

विदाई के समय आँसू बहाती लड़कियाँ ।

उन आँसुओ में होती है 

वो स्याही जिससे महबूब को खत लिखें जाने थे, 

वो आँसू इस वक्त के लिए नही थे 

उनकों अपने महबूब के कंधे पर तब बहना था जब वो उससे कई वक्त बाद मिला हो या किसी मिठ्ठे गुस्से से रूठकर तकिये पर बहने चाहिए थे।


एक अनजाने शख़्स के साथ जाती उस कन्या के आँसुओ के साथ बह जाता है 

उसका इश्क़ , 

उसकी कमसिनता ,

और वो सबकुछ जिसे वो जीना चाहती है ।


छगन कुमावत "लाड़ला"

Wednesday, 16 January 2019


मैं कभी अगर तुमसे दूर हो जाऊँ तो तुम नाखुश मत रहना, मीनल ने कहा ' मेरी यादों से खुद को तकलीफ़ मत पहुँचाना और हो सके तो मेरी जगह किसी और को दे देना, बस हमेशा खुशियों से तर रहना ।'

वह कुछ नहीं बोला, बस लगातार मीनल के झुमके को देखे जा रहा था । फिर खड़ा होकर , बालों में फंसे झुमके को ठीक किया और कहा 'चलो देर हो जाएगी ।'

 तुम समझते क्यों नहीं मीनल ने फिर कहा मैं स्थिर होकर नही रह सकती मतलब हम स्थिर नहीं रह सकते । तुम्हें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । अब पूछोगे कि क्यों ? तो इसका जबाव मेरे पास नही है ।
   
      ' तुम क्या समझती हो कि भूल जाना आसान होता है ' वह जाते हुए बोला ।
मीनल भी उसके पीछे चल दी ।
 लेकिन मीनल तुम फ़िक्र मत करो, मैं तुझे भूला भले न पाऊँ मगर याद करके आँसू नहीं बहाया करूँगा । अरे! मुझे कोई और मिल जाएगी यार,,,, फिर तेरी याद कौन करेगा ।
 उसने यह बातें ऐसे कहीं जैसे उसकी जुबां को इसके सिवाय कुछ याद नहीं आ रहा है और कुछ कहना भी जरूरी है । फिर उसने ठहाका लगाया ताकि मीनल इस अभिनय से अनभिज्ञ रहें ।
      मीनल के हाथ अब तक उसके पलकों तक आ चुके थे, वह स्पर्श पाकर एकदम चौंका तब मालूम हुआ कि आँसू निकल आए थे । उसने रूमाल निकाला मगर मीनल को आँसू पोछने दियें ।

      तुम अभिनय नहीं कर सकते , मीनल ने उदासी भरी मुस्कान के साथ कहा " जुबां कितनी हमारी है जो झूठ या सच जो कहलवाना हो कह देती है जबकि आँसू है कि आपा खो बैठते हैं ।"

     वो कुछ बोलने को होता है लेकिन काश!..... के आगे कुछ कह नहीं पाता है । बस रेत के उस टीले (धोरे) से उतरती मीनल को अपलक तब तक देखता रहता है जब तक वह पीछे मुड़कर मुस्कान नही फेंक देती । फिर धीरे धीरे मीनल ओझल हो जाती है और वो दोनों मुट्ठियों में रेत लेकर अपने गालों पर मल देता है मानों वो जता रहा हो कि उसके प्यार में जुदाई के आँसू नहीं आनें चाहिए थे । प्यार में जुदाई जैसे भाव गौण हो जाने चाहिए ।
    इतने में कोई रेतिला बवंडर आता है जो मीनल के बैठने की जगह बनें निशान और धोरे से नीचे उतरते पद चिह्नों व उसके आँसुओ की बूंदों के निशान सहित सबकुछ मिटाकर , पहले जैसा कर देता है ।।

~ छगन कुमावत "लाड़ला"©
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आजकल __ काफी वक़्त बाद ब्लॉग लिख रहा हूँ , हालाँकि हमेशा कुछ न कुछ लिख रहा होता हूँ मगर वो कहीं खो जाता है या लिखते-लिखते असंतुष्ट भाव आते हैं जो एक अनमने छोर पर लाकर छोड़ देता है जहाँ से वापस जाना मुश्किल हो जाता है ।

{तस्वीर: जूना पतरासर बाड़मेर स्थित आशापुरा माता मंदिर के भ्रमण के समय की,,,, कैमरे में कैद की गई लाखा राम द्वारा ।}

Friday, 21 December 2018


आधी से ज्यादा रात ढ़ल चुकी थी मगर आँखों से नींद का स्पर्श मात्र नहीं हुआ था । ऐसा रोज ही , कई रोज से होता आ रहा है ।
कमरे में स्याह अँधेरे के साथ उदासी भी छाई हुई थी । हाथ के मोबाईल फोन में सबकुछ रंगीन होकर भी फीका-फीका सा था ।
उसे घुटन सी महसूस हुई वो कमरे से निकल, छत पर आ गया । आसमान के श्याम पटल पर टिमटिमा रहे तारों को चिढ़ाता चाँद भी चाँदी बिखेर रहा था ।
उसने चाँद को निहारा जिस पर कुछ धब्बे दिखाई पड़ रहे थे । जिसके बारे में बचपन में सुना था कि वहाँ एक बुजुर्ग माँ रहती है जो अभी दही मथ रही है तथा पास में बकरी बंधी है जो सोने की पोटी(मिगणीयां) करतीं हैं । हालाँकि इस रोमांचक दृश्य को किताबों ने ख़ारिज कर दिया और उसे मात्र गड्डे कहा गया ।
कभी कभी इस ज्ञान का होना भी दुखद लगने लगता है ।

उसे लगा कि चाँद उसे पूछ रहा है कि "तुम्हें किसी से प्यार है क्या ? "
वो बगले झाँकने लगता है लेकिन चाँद का बिंब उसे फिर आकर्षित करता है और पूछता है कि "चुप क्यों हो ? "
उसे मन होता है कि वो दौड़कर नीचे चला जाए और रजाई में दुबककर सो जाए लेकिन नहीं, वह वहीं रहता है चाँद को बिना देंखे ।
दूर से श्वानों की आतीं आवाज के सिवाय वहाँ मौन और उदासी का ही पहरा था ।
,
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, अब तक चाँद आसमान के आग़ोश में समा चुका था अब बचा था काला आसमान और चमकदार सितारे ,,, जिन्हें देखकर वो जरा सा मुस्कराया और कहा " ओ! काले आसमान और स्वर्ण सितारों, अब मैं तुम से बतियाता हूँ ।
हाँ तो सुनों , मुझे प्यार है और बेहद ही गहरा प्यार है जिसका अहसास कुछ यूँ होता है कि वो जब साँस लेकर छोड़ती है तो उसकी ऊष्मा मानो मेरे बदन को गर्म कर देती है तभी इस सर्द रात में खुले आसमान के नीचे खड़ा हूँ ।
उसके घर की तरफ से आती हवाएँ मुझे सहलाती हुई जाती है मानो उसकी छुअन मुझे दे रही हो और साथ में महक का अहसास भी ।
हाँ, ये उसके बदौलत पाई उदासियाँ भी मेरे पहरे के लिए हैं जो मुझे अडिग रखती है,,,, भ्रम जाल में फंसी दुनिया में फंसने से रोकती है ।
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और भी कई बातें हुई,,
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चलो दोस्तों! (आसमान और सितारे) अब मुझे नींद आने लगी है यकीनन वो भी सो गई होगी और इश्क़ में यकीन के बाद शक की गुंजाइश नहीं रहती,,,, शब-ब-ख़ैर,,।
,,, वह नीचे आया और सोते वक्त सोशल मीडिया पर बैठे आनलाईन आशिकों की मण्डली पर मुस्कान फेंक कर ,,,,, रजाई में दुबक गया,,,, जाने कितने ख़्वाब इंतज़ार में होगें, उन्हें भी तो मुकम्मल करना था न ।।

छगन कुमावत "लाड़ला"©


{तस्वीर:किसी शाम मेरे द्वारा ली गयी ।}

Thursday, 6 December 2018

पलायन


अंजू ने अपना थैला गोद में लेकर बैठते हुए पूछा "और जनाब, आज आशिकी में इतना कैसे डूबे गये ।
मैं चौंका, किसकी आशिकी में ? नहीं तो ।
आपकी मासूका उदासी की आशिकी में और किसकी ।
नहीं, सोच रहा था कि हम आने वाली पीढ़ी को विज्ञान की तमाम उपलब्धियों के अलावा क्या देंगे । जैसे हमें राधा-कृष्ण मिलें वैसे हम उन्हें क्या देंगे ?
अरे! एक सिरे से बात बताओ यार ।
हाँ तो सुनो । आज काॅलेज में, मैंने देवा से एक लड़की के बारे में पूछा कि ये कौन है ?
देवा ने कहा "ये उस प्रीतम की 'आइटम' है तुझे नही पता क्या ? "
'आइटम' शब्द कितना ओछा है न । ऐसे लगता है कि कोई बाजारू चीज़ के बारे में बात हो रही है जिसका उपभोग मात्र ही उदेश्य रहता हो ।
हमारी भाषाओं के पास कितने खुबसूरत शब्द है । मासूका, प्रेमिका, महबूबा और भी , जिसके उच्चारण मात्र ही भावनात्मक जुड़ाव उत्पन्न होता है ।
कितना दुखद है न कि हम किसी के भाई, पुत्र होकर भी पुरूष नहीं हो पाए अब तक ।

अच्छा, अंजू तुम्हारी इन चीजों के बारे में क्या राय है ?
मेरी राय क्या होनी है, कुछ भी नहीं लेकिन ये सब अच्छा मुझे भी नहीं लगता बल्कि बहुत भद्दा महसूस होता है ।
अब चिंता को परे रखो और चाय पीकर घर को चलते हैं ।
हम पार्क के कोने की थडी पर जाकर बैठ गये और दो चाय मंगवाकर, मैंने थडी पर लगी छोटी सी टीवी के स्क्रीन पर नजरें टिका दी । जिसमें दिनभर की न्यूज बुलेटिन आ रही थी । उसकी 99 वीं खबर ने हम दोनों को चौंकाया जो यह थी " शाहरुख की फिल्म में सन्नी लियोन करेंगी 'आइटम' सॉन्ग " ।
अंजू ने घायल नजरों से मुझें देखा और उसके चेहरे पर अनजाना सा कोई भाव आ गया ।
अंजू, हमें यहाँ से पलायन करना होगा । हमें क्या हर उस इंसान को पलायन करना होगा जिसे प्यार कि ज़रूरत हो ।
आने वाली पीढ़ी को यह दुनिया देना घातक होगा, उन्हें प्यार से सरोबार दुनिया देनी होगी, ये हमारी ही जिम्मेदारी है ।
अंजू ! कितना मजेदार होगा न , यहाँ रहते हुए यहाँ से पलायन पर रहना ।
चाय के गिलास हमारे हाथों में आ चुके थे और हम ढ़लती शाम की जल्दी को छोड़ इत्मीनान से चाय की चुस्कियां ले रहे थे जैसे यहाँ से पलायन कर चुके हो ।

छगन कुमावत "लाड़ला"©

{ तस्वीर जंतर मंतर की है }
[चलना कभी तुम भी, इन तन्हा बेंचों पर बैठ कुछ वक़्त संवारेगे]

Tuesday, 27 November 2018

मीनल

वो अपने काॅलेज के बगीचे में दोस्तों को कविता सुना रहा था । उसे पीछे किसी के आने का आभास हुआ । उसने मुड़कर देखा तो मीनल थी ।
वह चहका, ओह्ह! आओ मीनू ।
उसने सरककर मीनल को बैठने की जगह दी और यकायक वहाँ से उठकर चला गया ।
रीमा, उसे एवं देवा ने मीनल को देखा एवं फिर एक-दूसरे की ओर देखकर , ओठों के अन्दर हँसे । फिर गंभीरता के साथ मण्डली बिखर गईं ।
उसने घर जाकर वाट्सएप देखा तो मीनल के कई संदेश आये हुए थे ।
क्या हुआ ?
ऐसा मैंने क्या किया ?
गलती तो बताते ?
और ढ़ेर सारे "?" के चिन्ह
?
?
?
उसने देखकर (seen) छोड़ दिया, कोई उत्तर नहीं दिया । मीनल फिर उदास इमोजी, उदासी भरे गाने भेजती लेकिन वो फिर भी कोई प्रत्युतर नहीं देता ।
काॅलेज में गुड मॉर्निंग से उसका अभिवादन करता, मुस्कुराकर जवाब भी देता लेकिन फिर भी एक अलगाव सा रखने लगा । वो हमेशा कोशिश में रहता कि दोस्तों के साथ ही रहूँ ताकि मीनल से अकेले में न मिल पाए ।
सोशल मीडिया के संदेशों एवं काॅलेज में वैसे ही रवैये के बीच लगभग डेढ़ महीना बीत गया । वो मंडली में बैठा कोई कविता सुना रहा था कि पीछे से मीनल ने आवाज दी
ओ ! इधर आओ ।
कौन ? मैं ?
हाँ, तो और कौन?
मीनल के आवाज की गम्भीरता को देखकर वो चुपचाप उसकी ओर चल दिया । वह पास गया तो देखा कि मीनल की आँखों में पानी हैं ।
अरे! मीनू क्या हुआ ? आओ बैठो । तुम भी न यार ।
वो दोनों बैच पर बैठ गये ।
मीनू, ऐसा नहीं है जैसा तुम सोच रही हो । तुम मेरी सबसे प्रिय हो । लेकिन मैंने कहानियों में कही पढ़ा है कि जो चीजें हम प्यार के नीचे दबा देते है वो एक अरसे बाद फिर जाग्रत हो जाती हैं जो प्यार और इंसान दोनों को अन्दर से तोड़ देती है ।
मैं देख रहा हूँ कि तुम अब अपने दोस्तों के साथ उतना चहक कर बातें नहीं करती, मजाक नहीं करती हो । तुम सिमट सी गई हो जैसे तुम्हें लगता हो कि तुम्हारी किसी बात या रवैए से मुझें बुरा न लग जाए और मैं नहीं चाहता कि तुम खुद को खो दो, अपनी प्रकृति खो दो ।
यह सही है कि प्यार समर्पण माँगता है लेकिन त्याग भी हो जरूरी नहीं ।
बस तुम उस पवित्र भावना को अटल रखना जिसे प्यार कहते है । इतना अटल कि वो किसी भी दूसरे मैत्री भाव से डगमगाए नहीं ।

यही सब, मैं खुद को भी इतनें दिनों से समझा रहा था कि प्यार को असल में अब तक हमने समझा नहीं है । प्यार का हक है कि वो हर समस्या या उलझन में तुम्हारी और आशा, साथ कि नजरों से देखें मगर प्यार जकड़न नहीं है एक स्वच्छंद जहां है ।
वो उठकर कैन्टीन में चला जाता है और मीनल मण्डली को उसकी लिखी कविता सुनाने लगती है । घर जाते ही वो मीनल के ढ़ेरों सवालों का एक जवाब देता है ।
"प्यार हो गया है"

छगन कुमावत "लाड़ला"©

तस्वीर: मेरे द्वारा किसी शाम ली गई ।


Saturday, 17 November 2018

बिखराव - प्रेम का


खुद को समेट पाना मुश्किल होता जा रहा है, जितना देखता जा रहा हूँ । उतना ही खुद को हिस्सों-हिस्सों में बांटता जा रहा हूँ और अब इस नियति में भी ढलता जा रहा हूँ ।
अच्छे-बुरे में भेद तो हो पा रहा है मगर सबसे अच्छे की पहचान खोता जा रहा हूँ ।
कहीं जाता हूँ तो खुद को थोड़ा उसके नाम भूल आता हूँ , किसी से मिलकर आऊँ तो कुछ उसका भी हो जाता हूँ । किसी को भुला नहीं पाता हूँ अपनी जिज्ञासा, तृष्णा को मिटा नहीं पाता हूँ ।
इसका आशय, शायद यह नहीं कि अपने शहर का प्यार उस शहर को दे आया ।
तुम्हारी मोहब्बत का हिस्सा उसे दे आया,,,
प्रेम जैसी किसी मानवीय भावना पर विश्वास करों तो पूर्णतः करना । ये सतत् वृद्धि करता रहता है ना कि टूटता है ।
फिर भी तुम चाहों कि नहीं, मैं बस तुम तक ही सिमट जाऊँ तो मुझे तुममें सिमट जाने से भी कोई ऐतराज नहीं ।
तुम में सिमटते-सिमटते, मैं शुन्य सा हो जाऊँगा जो गणित का होकर भी संक्रियाओं में नही आता । उसको किसी के साथ जोड़ने या घटाने से कोई फर्क नहीं आता ।
इस तन के मन के लिए जरूरी है कि सजीव-निर्जीव सबको प्यार बांटता रहें, उनके अद्भुत अहसास को महसूस करता रहें ।

मैं सिर्फ परिणामों से वाकिफ़ करवाना चाहता हूँ । ना इससे डर है ना अविश्वास ।
चीजें जान लेना जरूरी है अमल में लाना या नहीं यह स्वविवेक है ।

यह तस्वीर जयपुर के हवामहल के एक खिड़की की है । सामने की खिड़की नहीं है पार्श्व की है । कितनी नज़रों ने इसके पार का नज़ारा देखा होगा मगर मुझे इसके पार देखने से मोह सा हो गया,,, इसके पार निर्माणाधीन ब्रिज के अलावा कुछ न था फिर भी औसतन बड़ी देर तक देखता रहा, जैसे मेरा कुछ रह सा गया हो ।

छगन कुमावत "लाड़ला"©

{तस्वीर: 15 सितम्बर 2018 जयपुर भ्रमण के दौरान की }

Thursday, 8 November 2018

चंद पल,,

तस्वीरें  बस मौन बँया करती है,,
Click by LAKHA RAM 
"बिखरे ख़्यालों में न जाने कौनसा ख़्याल टीस दे जाए, न जाने कौनसा अन्दर तक गदगद कर दे ।"
वो आगे के सफ़र के लिए रेलगाड़ी के इंतजार में प्लेटफार्म पर टहल रहा था । वक्त जाया करने के जुगाड़ में कई अनजाने चेहरों से बातें भी हुईं होगी, ठहाके भी लगें होगें जिसमें से ठीक-ठीक कुछ भी याद नहीं लेकिन वो चंद पल उसे याद है जस के तस ।
वह उस लड़की के सामने से गुजरा तो वह मुस्कुराई । उसने चारों तरफ देखा कि वह उसकी ओर ही मुस्कुरा रही है । थोड़ा ठहरकर वह भी बेढ़ग सा मुस्कुराया और चेहरा झुकाकर आगे बढ़ा, काफ़ी आगे जाने के बाद मुड़कर देखा और बहुत आगे चला गया जहाँ से उसे देख भी न पाए ।
उसने चाहा क्यों नहीं कि वो उसके सामने की बेंच पर बैठ जाए, वक्त है तो ठहर जाए ।
वह वहाँ से फ़ौरन निकला क्योंकि उसे बस मुस्कुराहट अपने ज़ेहन में कैद करनी थी । चेहरा या उसकी कोई और भाव-भंगिमा को आड़े नहीं आने देना चाहता था ।
वो चंद पलों के इश्क़ को अनंत समय के लिए लेकर चला आया ....
वो भाषा, व्याकरण के परे प्यार और मोहब्बत में भिन्नता प्रदर्शित करता रहा है जिसकी बदौलत वो उस लड़की से हर इंसान की भाँति प्यार करता है और उसकी उस मुस्कुरान से मोहब्बत करता है जिससे खुद को ऊर्जावान बनाता है ।

प्यार के इतर किसी इंसान से इश्क़ करना,,, इस पर वो चुप है, मौन है मगर भावनाओं, अहसासों से बेइंतिहा मोहब्बत है जिसे यदा-कदा लिखता रहता है बेढ़गी श़ेर-ओ-शायरी में ...


छगन कुमावत "लाड़ला"©

Monday, 22 October 2018

किस्से कोटा के...


कोटा. रेलवे प्लेटफार्म के आखिरी बेंच पर बैठा लड़का, जो इस शहर को छोड़ रहा है । जिसमें वो पिछले एक साल तक रहा ।
एक साल काफ़ी है या नाकाफ़ी, किसी शहर को जानने के लिए , यह अनुमान लगाना बचकानी हरकत होगी ।
शायद हरेक के लिए यह शहर उतना विचित्र नहीं होगा जितना उसे लगा । उसका पश्चिमी राजस्थान के देहात से यहाँ आना और इसे जीना एक विचित्र, अनोखा अहसास था , खासकर किशोरावस्था के प्रारम्भिक दौर के कारण ।
उसने किशोर दिलों के उछलते जज्बातों को देखा, उनकी हसरतों को देखा ।
प्रेमजाल से ढ़के शहर में भी वो अप्रेमी रहा हालांकि वो कभी अप्रेमी नहीं था । उसने हमेशा जहाँ-तहाँ प्रेम का इजहार किया लेकिन वो प्रेमजाल वास्तविक रूप से अप्रेमजाल था जिसमें वो प्रेमी होकर भी अप्रेमी प्रतीत हुआ ।
उसने कभी किसी के प्रेम पर अंगुली नही उठाई मगर अगले दिन अखबार में नसें काटने की खबर में उसका नाम पढ़ता है तो उस प्रेम को दुत्कारता है बल्कि सिरे से खारिज करता है , उसके प्यार को ।
जो प्रेम टूट जाए असल में वो किसी भी तरफ से प्रेम नहीं होता है वो क्षणिक आनन्द के प्राप्ति का मद/नशा होता है जिसमें हम चूर हो जाते हैं । उतरने पर गलती का आभास होता है जो कभी-कभी जिन्दगी से भी बड़ी लगती है परिणामस्वरूप मौत चुन ली जाती है ।
उसे इससे भी बड़ी चोट , वो खब़र पहुँचाती है जो मौत का कारण "असफल प्रेम" बताती है ।
प्रेम को यूँ बदनाम करना कतई सही नही है । प्रेम, प्यार कभी असफल नहीं रहे । सीता का प्यार धनुष उठाने में, रावण को मारने में असफल नहीं हुआ । मांझी का प्यार पर्वत तोड़ने में असफल नही रहा ।
प्यार के इम्तिहान में दर्द, जुदाई सब आ सकते है लेकिन परिणाम कभी असफल नही आता है अगर आता है तो उसे प्रेम समझना भ्रम है ।
इस शिक्षा नगरी कोटा के बारे में कहने को उसके पास बहुत कुछ था लेकिन ट्रेन आ चुकी थी । अपने प्यार के सिवाय वो सबकुछ ट्रेन में लाद रहा था ।
इस रंगीन शहर के गहराई में उतरने के बाद भी वो अपने ही रंग में रंगकर घर की ओर जा रहा था ।

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कई किस्से हैं इस अतरंगे शहर कोटा के, बाकी के फिर कभी ।
शायद कुछ था कोटा का जो वह अपने साथ भूल से ले आया था, लौटाने जाना है ।

छगन कुमावत "लाड़ला"©

Friday, 21 September 2018

ढ़लती शाम ...

तस्वीर सुजेश्वर पहाड़ी के शिव मंदिर से , उस दौरान लाखाराम ने ली थी जब मैं, हेतु लिम्मा व लाखा राम के साथ वहाँ गया था ।

उसकी कक्षा का अन्तिम कालांश हमेशा खिडक़ी से बाहर झाँकने में ही व्यतीत होता ।
दरअसल उसका अन्तिम कालांश हमेशा से ही खाली रहता है । पहले पहल मन ही मन विद्यालय प्रबंधन को कोसता "साले घर जाने क्यों नहीं देते, फोकट के बैठा के ही तो रखते हैं ।"
इस समय सारी कक्षा आपस की बातों में मशगूल हो जाती मगर वो शामिल नही होता क्योंकि दो तरह के दोस्त होते हैं, एक जो पढ़ाई की बातें करतें हैं जिससे अब तक वो ऊब चुका होता है । दूसरे इधर-उधर की करते हैं, उससे उसे कोई समस्या नहीं होतीं मगर वो धीरे-धीरे, अपनी किशोरावस्था के मद में वहाँ तक पहुँच जातें हैं जहाँ , उसकी तहजीब जाने नहीं देती ।
उन्हीं बेहूदा चीजों से बचने के लिए । उसने खिड़की के पास वाली बेंच पर बैठना प्रारंभ किया जो अक्सर खाली ही रहती थी । जिसके दो कारण थे । एक तो चाॅक की डस्ट बहुत आतीं थी । दूसरा, बेंच के ऊपर लटकते खराब पंखे पर बैठने वाले कबूतरों का आतंक ।
ज्यों ही अन्तिम कालांश लगता । वो खिड़की के पास आकर बैठ जाता । सामने वो पाठ खोलकर रखता जो उसे याद होता ताकि सजा से बचा जा सके क्योंकि विद्यालय में ऐसा प्रचलन है कि खाली कालांश में बच्चा जो पेज खोलकर बैठा है उसमें से सवाल पूछों, जवाब मिलें तो ठीक नहीं तो दे पीठ पर धीक(मुक्का)।
आज वो अपने विद्यालय की दूसरी मंजिल की उस खिड़की से , इस देहाती शहर के दूसरे छोर पर स्थित सबसे ऊँची पहाड़ी को देख रहा था जिस पर शिवालय बना हुआ है ।
सोच रहा था । काश! किसी दिन जल्दी छुट्टी मिल जाए तो वो दोनों यहाँ से सीधे वहाँ, उस पहाड़ी पर जाएँ । इतनी तेजी से दौड़कर जाएँ कि सूर्य क्षैतिज के आँचल में समा भी ना पाए । हाँफते हुए वहाँ पहुँचे और शिवालय की पिछली दीवार पर बैठकर विशाल सूरज को बेहद शीतलता से छोटी छोटी पहाडियों की ओट में समाते हुए देखें । गर्म हुईं उनकी साँसे , इस सर्द शाम को ऊष्मा प्रदान करें जिससे वातावरण और भी सुहाना हो जाए ।
उस दिन ना शिवालय के आरती की आवाज़ आए ना तलहटी में स्थित मस्जिद से अज़ान की आवाज़ आए । कानों में कुछ सुनाई दे तो सिर्फ नीड़ो की तरफ लौटते पक्षियों का कलरव, घरों की तरफ लौटते चरवाहों व पशुओं के कदमों की आवाजें ।
यह मानवीय चुप्पी टूटे तो बस उसके इस प्रश्न से कि प्रेम क्या है ? प्रेम, इस पर सोचा न जाए तो बेहतर है मगर फिर भी, यह वो आलौकिक भावना है जिसमें हर कार्य में स्वहित से पहले पर हित को रखा जाता है ।
यह सोच रखी जाती है कि उस पर मेरा अधिकार हो न हो , मुझ पर उसका सम्पूर्ण अधिकार है और जब दोनों और से एक ही भावना एक दूसरे के लिए विकसित हो तो प्रेम जीवित होकर तुम्हें जीने लगता है ।
यूँ ही बातों-बातों में रात गहरा जाए। अब तक साँसे ठण्डी हो जाए । उनके दरमियां दूरी कायम रहे भले तापमान गिरने लगें मगर वो अन्तर्मन से इतनें जकड़ जायें कि कोई एक उस दीवार से फिसल कर पीछे की अन्धी, गहरी खाई में गिर जाए तो दूसरे के प्राण भी उसी के साथ सदा के लिए घने अन्धेरे में कहीं खो जाए ।
सुबह के उजाले में दिखे तो बस एक बुत, साँस विहीन शरीर । जिस पर हो अनेकों सवाल, उसके खान-पान से लेकर उसके चरित्र तक ,, हरेक पर हो कईं सवाल । जिसकी पुष्टि की जिम्मेदारी हो , डाक्टरों व पुलिस के कंधों पर मगर उनके वैज्ञानिक यंत्र व विकसित सोच चुप्पी साधे रहे । फिर जिसे जो ठीक लगें वो अपने हिसाब से दोष मढ़ता रहे ।
यह सब देख, उनकी पवित्र आत्माएं । राधा-कृष्ण की आत्माओं से संवाद करती है कि यही फर्क है तुम्हारे और हमारे समय का ।
राधा-कृष्ण की आत्माएं अफसोस के साथ उत्तर देतीं हैं कि यही कारण है अब राधा-कृष्ण फिर जन्म नहीं लेते ।
हर रोज़ ज्यों ही शाम घिरने को आए वो फिर से वही जाकर बैठ जाए और साँसों से वातावरण को गर्म कर सूरज को डूबते हुए देखते रहें और फिर आरती-अज़ान को छोड़ पशु-पक्षियों व चरवाहों की आवाज़ सुनते हुए कहीं अंधेरे में खो जाए ।

छगन कुमावत "लाड़ला"©

Tuesday, 4 September 2018

है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ...

पिताजी,  जिनसे ही इस जटिल
 मानव जीवन को सरलता व प्यार से
लबरेज़ होकर जीना सीखा ,,,
बहुत कुछ सीख रहा हूँ ।
 ।

      ¤ कविता ¤

है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।
है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।

अर्जुन बनकर द्रोण को प्रणाम ।
राम बनकर वशिष्ठ को प्रणाम ।।

छाँट-छाँट अवगुण भगाएँ।
उबड़-खाबड़ जीवन पथ पर
अडिगता से चलना सिखाएँ ।।

है राष्ट्र निर्माता तुम्हें प्रणाम ।
है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।

चंदा-सुरज की दुनिया से
वाकिफ़ कराया ।
न जाने कितनी मेरी
उलझनों को सुलझाना ।।

है पथ प्रदर्शक तुम्हें प्रणाम ।
है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।

अपने ज्ञान चक्षु से
मेरा कौशल पहचाना ।
मुझमें है सूरज छूने का
हुनर आप से जाना ।।

है जीवन दिवाकर तुम्हें प्रणाम ।
है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।

वैर, बेईमानी से
दूर बनाया ।
प्राणी मात्र के प्रति
प्रेम जगाया ।।

है देव तत्त्व तुम्हें प्रणाम ।
है गुरुवर तुम्हें प्रणाम ।।


छगन चहेता ©

डायरी : 2 October 2020

कुछ समय से मुलाकातें टलती रही या टाल दी गई लेकिन कल फोन आया तो यूँ ही मैं निकल गया मिलने। किसी चीज़ को जीने में मजा तब आता है जब उसको पाने ...