Friday, 21 September 2018

ढ़लती शाम ...

तस्वीर सुजेश्वर पहाड़ी के शिव मंदिर से , उस दौरान लाखाराम ने ली थी जब मैं, हेतु लिम्मा व लाखा राम के साथ वहाँ गया था ।

उसकी कक्षा का अन्तिम कालांश हमेशा खिडक़ी से बाहर झाँकने में ही व्यतीत होता ।
दरअसल उसका अन्तिम कालांश हमेशा से ही खाली रहता है । पहले पहल मन ही मन विद्यालय प्रबंधन को कोसता "साले घर जाने क्यों नहीं देते, फोकट के बैठा के ही तो रखते हैं ।"
इस समय सारी कक्षा आपस की बातों में मशगूल हो जाती मगर वो शामिल नही होता क्योंकि दो तरह के दोस्त होते हैं, एक जो पढ़ाई की बातें करतें हैं जिससे अब तक वो ऊब चुका होता है । दूसरे इधर-उधर की करते हैं, उससे उसे कोई समस्या नहीं होतीं मगर वो धीरे-धीरे, अपनी किशोरावस्था के मद में वहाँ तक पहुँच जातें हैं जहाँ , उसकी तहजीब जाने नहीं देती ।
उन्हीं बेहूदा चीजों से बचने के लिए । उसने खिड़की के पास वाली बेंच पर बैठना प्रारंभ किया जो अक्सर खाली ही रहती थी । जिसके दो कारण थे । एक तो चाॅक की डस्ट बहुत आतीं थी । दूसरा, बेंच के ऊपर लटकते खराब पंखे पर बैठने वाले कबूतरों का आतंक ।
ज्यों ही अन्तिम कालांश लगता । वो खिड़की के पास आकर बैठ जाता । सामने वो पाठ खोलकर रखता जो उसे याद होता ताकि सजा से बचा जा सके क्योंकि विद्यालय में ऐसा प्रचलन है कि खाली कालांश में बच्चा जो पेज खोलकर बैठा है उसमें से सवाल पूछों, जवाब मिलें तो ठीक नहीं तो दे पीठ पर धीक(मुक्का)।
आज वो अपने विद्यालय की दूसरी मंजिल की उस खिड़की से , इस देहाती शहर के दूसरे छोर पर स्थित सबसे ऊँची पहाड़ी को देख रहा था जिस पर शिवालय बना हुआ है ।
सोच रहा था । काश! किसी दिन जल्दी छुट्टी मिल जाए तो वो दोनों यहाँ से सीधे वहाँ, उस पहाड़ी पर जाएँ । इतनी तेजी से दौड़कर जाएँ कि सूर्य क्षैतिज के आँचल में समा भी ना पाए । हाँफते हुए वहाँ पहुँचे और शिवालय की पिछली दीवार पर बैठकर विशाल सूरज को बेहद शीतलता से छोटी छोटी पहाडियों की ओट में समाते हुए देखें । गर्म हुईं उनकी साँसे , इस सर्द शाम को ऊष्मा प्रदान करें जिससे वातावरण और भी सुहाना हो जाए ।
उस दिन ना शिवालय के आरती की आवाज़ आए ना तलहटी में स्थित मस्जिद से अज़ान की आवाज़ आए । कानों में कुछ सुनाई दे तो सिर्फ नीड़ो की तरफ लौटते पक्षियों का कलरव, घरों की तरफ लौटते चरवाहों व पशुओं के कदमों की आवाजें ।
यह मानवीय चुप्पी टूटे तो बस उसके इस प्रश्न से कि प्रेम क्या है ? प्रेम, इस पर सोचा न जाए तो बेहतर है मगर फिर भी, यह वो आलौकिक भावना है जिसमें हर कार्य में स्वहित से पहले पर हित को रखा जाता है ।
यह सोच रखी जाती है कि उस पर मेरा अधिकार हो न हो , मुझ पर उसका सम्पूर्ण अधिकार है और जब दोनों और से एक ही भावना एक दूसरे के लिए विकसित हो तो प्रेम जीवित होकर तुम्हें जीने लगता है ।
यूँ ही बातों-बातों में रात गहरा जाए। अब तक साँसे ठण्डी हो जाए । उनके दरमियां दूरी कायम रहे भले तापमान गिरने लगें मगर वो अन्तर्मन से इतनें जकड़ जायें कि कोई एक उस दीवार से फिसल कर पीछे की अन्धी, गहरी खाई में गिर जाए तो दूसरे के प्राण भी उसी के साथ सदा के लिए घने अन्धेरे में कहीं खो जाए ।
सुबह के उजाले में दिखे तो बस एक बुत, साँस विहीन शरीर । जिस पर हो अनेकों सवाल, उसके खान-पान से लेकर उसके चरित्र तक ,, हरेक पर हो कईं सवाल । जिसकी पुष्टि की जिम्मेदारी हो , डाक्टरों व पुलिस के कंधों पर मगर उनके वैज्ञानिक यंत्र व विकसित सोच चुप्पी साधे रहे । फिर जिसे जो ठीक लगें वो अपने हिसाब से दोष मढ़ता रहे ।
यह सब देख, उनकी पवित्र आत्माएं । राधा-कृष्ण की आत्माओं से संवाद करती है कि यही फर्क है तुम्हारे और हमारे समय का ।
राधा-कृष्ण की आत्माएं अफसोस के साथ उत्तर देतीं हैं कि यही कारण है अब राधा-कृष्ण फिर जन्म नहीं लेते ।
हर रोज़ ज्यों ही शाम घिरने को आए वो फिर से वही जाकर बैठ जाए और साँसों से वातावरण को गर्म कर सूरज को डूबते हुए देखते रहें और फिर आरती-अज़ान को छोड़ पशु-पक्षियों व चरवाहों की आवाज़ सुनते हुए कहीं अंधेरे में खो जाए ।

छगन कुमावत "लाड़ला"©

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