अक्सर मैं देखता हूँ छोटे शहरों,
गाँवों की लड़कियों को
जो अभी फुदक कर उम्र के कमसिन दौर में आई है
जिसकी ज़ुल्फ चोटी से छूटकर आ जाती है
चेहरे पर अठखेलियां करने ।
जब वो चूल्हा फूँकने या लिखने को झुकती है ।
तब वो ज़ुल्फ़ों को फिर से
चेहरे पर आने का न्योता देकर
कान के पीछे फंसाने के बजाए
जकड़ लेती हेयर क्लिप से ,
जिस प्रकार वो खुद जकड़ी होती है
समाज की बेड़ियों से ।
शायद यही वजह है कि मैं छिड़ता हूँ
तमाम हेयर क्लिप से,
उन्हें पिघलाना चाहता हूँ और बनाना चाहता हूँ मोटर का पहिया
जिसके सहारे वो लड़की तमाम बंधनों को काटकर उड़ सके स्वच्छंद आसमां में ।
इससे आगे भी देखता हूँ
विदाई के समय आँसू बहाती लड़कियाँ ।
उन आँसुओ में होती है
वो स्याही जिससे महबूब को खत लिखें जाने थे,
वो आँसू इस वक्त के लिए नही थे
उनकों अपने महबूब के कंधे पर तब बहना था जब वो उससे कई वक्त बाद मिला हो या किसी मिठ्ठे गुस्से से रूठकर तकिये पर बहने चाहिए थे।
एक अनजाने शख़्स के साथ जाती उस कन्या के आँसुओ के साथ बह जाता है
उसका इश्क़ ,
उसकी कमसिनता ,
और वो सबकुछ जिसे वो जीना चाहती है ।
छगन कुमावत "लाड़ला"
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