खुद को समेट पाना मुश्किल होता जा रहा है, जितना देखता जा रहा हूँ । उतना ही खुद को हिस्सों-हिस्सों में बांटता जा रहा हूँ और अब इस नियति में भी ढलता जा रहा हूँ ।
अच्छे-बुरे में भेद तो हो पा रहा है मगर सबसे अच्छे की पहचान खोता जा रहा हूँ ।
कहीं जाता हूँ तो खुद को थोड़ा उसके नाम भूल आता हूँ , किसी से मिलकर आऊँ तो कुछ उसका भी हो जाता हूँ । किसी को भुला नहीं पाता हूँ अपनी जिज्ञासा, तृष्णा को मिटा नहीं पाता हूँ ।
इसका आशय, शायद यह नहीं कि अपने शहर का प्यार उस शहर को दे आया ।
तुम्हारी मोहब्बत का हिस्सा उसे दे आया,,,
प्रेम जैसी किसी मानवीय भावना पर विश्वास करों तो पूर्णतः करना । ये सतत् वृद्धि करता रहता है ना कि टूटता है ।
फिर भी तुम चाहों कि नहीं, मैं बस तुम तक ही सिमट जाऊँ तो मुझे तुममें सिमट जाने से भी कोई ऐतराज नहीं ।
तुम में सिमटते-सिमटते, मैं शुन्य सा हो जाऊँगा जो गणित का होकर भी संक्रियाओं में नही आता । उसको किसी के साथ जोड़ने या घटाने से कोई फर्क नहीं आता ।
इस तन के मन के लिए जरूरी है कि सजीव-निर्जीव सबको प्यार बांटता रहें, उनके अद्भुत अहसास को महसूस करता रहें ।
मैं सिर्फ परिणामों से वाकिफ़ करवाना चाहता हूँ । ना इससे डर है ना अविश्वास ।
चीजें जान लेना जरूरी है अमल में लाना या नहीं यह स्वविवेक है ।
यह तस्वीर जयपुर के हवामहल के एक खिड़की की है । सामने की खिड़की नहीं है पार्श्व की है । कितनी नज़रों ने इसके पार का नज़ारा देखा होगा मगर मुझे इसके पार देखने से मोह सा हो गया,,, इसके पार निर्माणाधीन ब्रिज के अलावा कुछ न था फिर भी औसतन बड़ी देर तक देखता रहा, जैसे मेरा कुछ रह सा गया हो ।
छगन कुमावत "लाड़ला"©
{तस्वीर: 15 सितम्बर 2018 जयपुर भ्रमण के दौरान की }
No comments:
Post a Comment