डिब्बे में डिब्बा, डिब्बे में लस्सी ।
सबसे प्यारी तेरी हँसी ।।
ऐसी नादान शायरियाँ बनाता था तब , फिर भी न जाने क्यों ग़ालिब, फ़ैज को पढ़ने वाली । रोज़ कहती , लो सुनाओ ।
आज क्या बनाया ,,, नही कुछ नही
अरे सुनाओ,,, अब ज्यादा भाव मत खाओ
फिर सुनकर देर तक वाह! वाह! करती ।
मेरा उटपटांग शायरी बनाना, तुम्हें सुनाकर मुकम्मल कर जाना,,,, बस यही होता रहा कईं रोज़ तक ।
अबके छुट्टियाँ पड़ी तो ग़ालिब, फ़ैज, दुष्यंत को पढ़ा ।
कुमार विश्वास को सुना ताकि शेरों शायरी की विधा को समझ सकूँ ।
मतला, मुक्ता, क़ाफ़िया ,रदीफ़ को सीखा,,,
नया सत्र आरंभ हुआ लगा कि अब तुझे अच्छी-अच्छी शायरियाँ, ग़ज़लें सुनाऊंगा मगर पता चला कि तुमने शहर छोड़ दिया, लाज़िम भी था मुसाफ़िर जो थी ।
मेरा जज़्बातों को अल्फाज़ो में ढ़ालना बदस्तूर जारी रहा ।
वक़्त के पन्ने पलटते गये, शायरियाँ रफ कापियों के साथ रद्दी होती गई मगर मन में सुलगती रही ,,, उसके मुकम्मल होने को तेरे कानों तक पहुँचना जरूरी जो था ।
Instagram, FB , Twitter, blog पर शेयर किया । यही सोचकर कि तू इस भौतिक जहां में ना जाने कहीं मिले न मिले मगर इस आभासी दुनिया में तो मिल ही सकती है ।
सोशल मीडिया पर नया notification देखता हूँ तो लगता है कि हो सकता है ये तेरा होगा लेकिन वहाँ कोई और होता है । ना जाने कितनों के मोबाइल स्क्रीन से होकर वो दिलों तक जाती है मगर फिर भी अधूरी सी मुझे देखती है ।
Search box पर तेरा नाम डालाता ,,, हजारों परिणाम आए लेकिन मुझे तो किसी एक की खोज थी ।
कम्प्यूटर है इंसान नहीं न ,दिमाग़ हैं दिल नहीं न , फिर जज़्बात बेचारा कैसे समझता ।
वही नाम , सरनाम वाली दो-तीन प्रोफाइल देखकर,,, मन मारकर वापस से जज़्बातों को अल्फाज़ो में उतारने लग जाता हूँ ।
बस यूँ ही कभी कभी याद आता है,,,
बस यूँ ही कभी कभी ख्याल आता है,,,।
छगन चहेता ©
(तस्वीर,हेतु लिम्मा, लाखा राम के साथ सुजेश्वर पहाड़ी के भ्रमण के समय की , कैमरे में लाखा राम ने सहेजी ।)
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