Wednesday, 22 November 2017

छगन चहेता की कविता, ,,,,,आधुनिक शिक्षण संस्थानों पर, ,

 पढ़ा था किताबों, अखबारों में
देखा  TV,न्यूजों में
चिंता जताते चिन्तको को
कि चढ़ रहा है भूत पाश्चात्य का
भूल रहें हैं संस्कृति भारत की
पर हुआ नहीं विश्वास कि ये सच भी हैं
था भरोसा एक शिक्षा के संस्थानों पर
कि जब तक ये हैं हम भूल नहीं सकते
भारत की मूल मर्यादा को।
पर तोड़ दिया वो सब भ्रम विश्वासों का
हो गया विश्वास किताबों, अखबारों, TV के शुभचिंतकों पर
जब शिक्षा के मंदिर से ही निकाल दिया हमें, मुनाफा ना होने पर ।
तब याद आ गई अग्रेंजों की नीति, लुटो और बर्बाद करो
कुछ भी हो जाए ग्राहक का,पर अपनी जेब गर्म रखों।
था नहीं कभी कपड़ों की मान-मर्यादा का जिक्र हमारी संस्कृति में,
 विश्वास, विचारों की ही बातें थीं
जो आपने मुल - जड़ों से ही उखाड़ दी ।
होने गया विश्वास उन बड़े सयानो की बातों पर
कि गोरे अंग्रेज तो चले गये पर गुण अपने छोड़ गये ।
 इन संस्थानों में बातें होती हैं मैकाले नीति हटाने की
पर यहीं चल रही है नीति मैकाले के ही वंशज की।
  भरो जेब अपनी इसमें कोई हर्ज नहीं
पर मत भटकाओ उस राही को जिसका आपसे कोई बैर नहीं ।।
हम तो भूल भी जाएंगे, हमें घाव सहने की आदत जो है।

आने वाली पीढ़ी के लिए

एक बार फिर जताता हुँ विश्वास कि ,अपनी भूल पर पछतावा होगा
इस काॅलेज में भी तक्षशिला से विद्वानों का उत्पादन होगा ।
निकलेगें यहाँ से भी विवेकानंद से युवा,
जो विश्व का उत्थान करेंगे ।
विश्वास हैं कि बिजनेस नहीं, फर्ज मानकर शिक्षा का विकास होगा
आने वाले हर विद्यार्थी का सपना साकार होगा
विश्वास फिर जताता हुँ कि फिर विश्वासघात नहीं होगा ।।
                       
                                   *छगन चहेता

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