Saturday, 30 June 2018

मोहब्बत (कविता)


एक रोज मुझे मोहब्बत मिली थी ,

वो एक कोने में चुपचाप खड़ी थी ।

बोला गुमसुम सी क्यों हो ?

बताओं तुम कौन हो?

मोहब्बत हूँ , जनाब ।

उसे गौर से देखा ,

विश्वास न हुआ ।

बोला क्यों फिरकी लेती हो ?

तुम मोहब्बत हो ही नहीं सकती।

तुम सादी-सिम्पल ,

ना जिस्मानी नूर ।

फिर कैसे मोहब्बत हो सकती हो ।

हो सकता है तुम्हें मैं बच्चा दिखता हूँ

मगर कच्चा न समझो ।

फिल्में भी देखी है ,

कहानियाँ भी सुन रखी हैं ।

मोहब्बत होती है

गुलाबी गाल , गोरी कलाईया

कजरारे नैन, सुनहरे बाल

बताओं तुममे इसमें से

एक भी है बात ।

बोली तुम भी नासमझ निकले ।

एक दिन ये रंग उड़ जाएगा ,

तब क्या मोहब्बत मर जाएगी ।

रंग, चाल - ढाल ना जाने

तुम कहाँ से लायें ?

आँखों में इज्ज़त ,

दिल में प्रेम हो जिसके

उसी की हो जाती हूँ ।

सच कहती हूँ ,

मोहब्बत हूँ ।

ब्यूटी पार्लर में नहीं ,

दिल में सजती हूँ ।।

          - छगन चहेता

चित्र-
[https://www.deviantart.com/nhienan/art/lonely-526665523]

No comments:

Post a Comment

डायरी : 2 October 2020

कुछ समय से मुलाकातें टलती रही या टाल दी गई लेकिन कल फोन आया तो यूँ ही मैं निकल गया मिलने। किसी चीज़ को जीने में मजा तब आता है जब उसको पाने ...