Monday, 22 October 2018

किस्से कोटा के...


कोटा. रेलवे प्लेटफार्म के आखिरी बेंच पर बैठा लड़का, जो इस शहर को छोड़ रहा है । जिसमें वो पिछले एक साल तक रहा ।
एक साल काफ़ी है या नाकाफ़ी, किसी शहर को जानने के लिए , यह अनुमान लगाना बचकानी हरकत होगी ।
शायद हरेक के लिए यह शहर उतना विचित्र नहीं होगा जितना उसे लगा । उसका पश्चिमी राजस्थान के देहात से यहाँ आना और इसे जीना एक विचित्र, अनोखा अहसास था , खासकर किशोरावस्था के प्रारम्भिक दौर के कारण ।
उसने किशोर दिलों के उछलते जज्बातों को देखा, उनकी हसरतों को देखा ।
प्रेमजाल से ढ़के शहर में भी वो अप्रेमी रहा हालांकि वो कभी अप्रेमी नहीं था । उसने हमेशा जहाँ-तहाँ प्रेम का इजहार किया लेकिन वो प्रेमजाल वास्तविक रूप से अप्रेमजाल था जिसमें वो प्रेमी होकर भी अप्रेमी प्रतीत हुआ ।
उसने कभी किसी के प्रेम पर अंगुली नही उठाई मगर अगले दिन अखबार में नसें काटने की खबर में उसका नाम पढ़ता है तो उस प्रेम को दुत्कारता है बल्कि सिरे से खारिज करता है , उसके प्यार को ।
जो प्रेम टूट जाए असल में वो किसी भी तरफ से प्रेम नहीं होता है वो क्षणिक आनन्द के प्राप्ति का मद/नशा होता है जिसमें हम चूर हो जाते हैं । उतरने पर गलती का आभास होता है जो कभी-कभी जिन्दगी से भी बड़ी लगती है परिणामस्वरूप मौत चुन ली जाती है ।
उसे इससे भी बड़ी चोट , वो खब़र पहुँचाती है जो मौत का कारण "असफल प्रेम" बताती है ।
प्रेम को यूँ बदनाम करना कतई सही नही है । प्रेम, प्यार कभी असफल नहीं रहे । सीता का प्यार धनुष उठाने में, रावण को मारने में असफल नहीं हुआ । मांझी का प्यार पर्वत तोड़ने में असफल नही रहा ।
प्यार के इम्तिहान में दर्द, जुदाई सब आ सकते है लेकिन परिणाम कभी असफल नही आता है अगर आता है तो उसे प्रेम समझना भ्रम है ।
इस शिक्षा नगरी कोटा के बारे में कहने को उसके पास बहुत कुछ था लेकिन ट्रेन आ चुकी थी । अपने प्यार के सिवाय वो सबकुछ ट्रेन में लाद रहा था ।
इस रंगीन शहर के गहराई में उतरने के बाद भी वो अपने ही रंग में रंगकर घर की ओर जा रहा था ।

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कई किस्से हैं इस अतरंगे शहर कोटा के, बाकी के फिर कभी ।
शायद कुछ था कोटा का जो वह अपने साथ भूल से ले आया था, लौटाने जाना है ।

छगन कुमावत "लाड़ला"©

डायरी : 2 October 2020

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