Wednesday, 18 April 2018

::आजकल ::


"  मुझे बदलने की नहीं बढ़ोतरी की सलाह दीजिए ।। "


मध्यमवर्गीय परिवार की दृष्टि से , मैं उस अवस्था में आ गया हूँ जहाँ आर्थिक दृष्टि से सबल होने की ओर बढ़ना चाहिए ।
   आजकल लोग बहुत प्रश्न करने लगें हैं । ऐसा कम ही पूछा जाता है कि बेटा कैसे हो ? यही पूछा जाता है कि बेटा, आजकल क्या कर रहें हो ? ऐसा नहीं है कि इस सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं हैं । जवाब है । बहुत विस्तृत और सटीक जवाब है। मगर मैं जानता हूँ कि उन्हें यह जवाब नहीं चाहिए । उन्हें तो बस यह पता लगाना होता है कि बंदे का भविष्य में आर्थिक स्टेटस् क्या होगा ।
 इसलिए आजकल ऐसे सवालों पर चुप रहता हूँ ।
   ग्यारहवीं कक्षा के दौरान IIT की तैयारी के लिए कोटा गया था । आह ! क्या खुबसूरत व मजेदार शहर हैं  ।
फिर जब एक वर्ष पर्यंत वहाँ से वापस लौटा । IIT की तैयारी अधूरी छोड़ । अपने शहर । यहाँ आया तो लोगों के सवाल तैयार ही थे ।
"और भाई बीच में ही वापस कैसे आ गये ?
गणित समझ नहीं आयी ?
मन नहीं लगा ?
फीस ज्यादा थी क्या ? वगैरह - वगैरह ना जाने कितने प्रश्न करते थे लोग ?
मेरा जवाब होता "नहीं भाई बस IIT में मन नहीं रहा,  नही करनी मुझे IIT ."
अरे!  भाई ऐसा थोड़े ही होता हैं,  जरूर कुछ और ही बात होगी ।
हाँ, भाई जो मानना हैं वो मानो । जब खुद ही के मन- मुताबिक उत्तर चाहिए , तो मुझे क्यों घसीटते हो । अपनी जो संभावना लगानी हैं,  लगा लो ।
  ऐसे ही कारणों से आजकल चुप रहता हूँ ।
इस प्रश्न का भी उत्तर हैं मेरे पास कि बेटा आजकल क्या करते हो ?
 जिंदगी को जी रहा हूँ । अपना शौक है लिखना,  उससे भी दो - दो हाथ कर रहा हूँ । घर वालों ने बाईक की व्यवस्था की है,  लाइसेंस नहीं हैं मगर फिर भी परमिशन हैं, ,, तब भी अक्सर सुबह - शाम सड़क किनारे,  यूँ ही पैदल - पैदल निकल पड़ता हूँ । लोगों को महसूस करते,  सड़कों पर भागती जिंदगी के दर्द को सहते , किसी की खोज में;  ना जाने किसकी ? बस निकल पड़ता हूँ ।
    कभी शाम को छत की मुँड़ेर पर बैठ । पीछे पहाड़ों की ओर सूरज को ढलते निहारता हूँ । मेरे घर के पीछे थोड़ी दूर मस्जिद है , उससे थोड़ी दूर पहाड़ी पर शिव मंदिर और उससे बहुत दूर सूर्य हैं । जो विज्ञान के ना जाने कितने नियमों को संतुष्ट करने के चक्कर में । उस  मंदिर - मस्जिद के मध्य में अस्त (डुबता) होता प्रतित होता है । यह दृश्य बड़ा सुहाना लगता है आँखों को मगर दिल यह सब देख रोता हैं ।
 यूँ ही अगर मंदिर - मस्जिद ; हिन्दू - मुस्लिम के बीच दूरीयाँ रही तो एक दिन इंसानियत का सूरज भी ठीक ऐसे ही दोनों के मध्य डूब जाएगा जो वापस सदियों - सदियों तक उदय नहीं होगा । फिर ना उसे हिन्दू बचा पाएगा ना मुसलमान । फिर ना हिन्दू बचेगा ना मुसलमान ।।
   आजकल इसी विचारशीलता के साथ जी रहा हूँ  । इस बीच वक्त निकालकर पेट पालने के लिए कुछ अजीब सी किताबें पढ़ रहा हूँ । जिससे सहमत हूँ या नहीं पर उसे ही सही ठहरा रहा हूँ ।

  " सबको मुकाम तक पहुँचाना हैं मगर मुझे ना जाने क्यों?  रास्तों का शौक है,  चलना अच्छा लगता है । मुकाम तक तो पहुँच रूक जाना होता है न । "

  सब बस यही कहते है कि ढ़ग से कहीं सेट हो जाओ । मैं भी यही चाहता हूँ कि अच्छी सी नौकरी पा लूँ ।
 मगर सिर्फ धन कमाना ही मेरी जिंदगी हैं । उससे आगे कुछ भी नहीं, ,, कुछ भी । अच्छा लगता है । लोग चाहते है कि मेरी जिंदगी अच्छी हो , मेरे पास भी अच्छी आमदनी हो ,, फिर भी मुझे समझने का पैमाना , मेरी आर्थिक तरक्की से ना नापों तो बेहतर होगा । जो सुख - सुविधा मेरा शरीर माँगता हैं उसका जुड़ाग खुद से ही कर लेंगे । यकीन दिलाता हूँ कि उसके लिए कभी किसी को जायज तकलीफ नहीं होगी ।
 "खुशी" नाम की भी कोई चीज होती है जिसकी किमत हरेक के लिए अलग होती हैं ।
 मेरे लिए उसकी किमत,  खुद को महसूस करने का समय हैं ।
  बचपन से , बस स्कूली किताबें पढ़ता आ रहा हूँ और उसे पढ़ने का एक कारण यह भी सुनता आ रहा हूँ कि पढोगे तो अच्छी नौकरी मिलेगी, अच्छी नौकरी से अच्छी छौकरी मिलेगी ।
 क्यों? क्यों?  यह झूठ,  इस मासूम को बताया गया । तब उसे ना नौकरी  और ना ही छोकरी के मायने पता थे लेकिन एक लालसा दी गईं । मासूम की मासूमियत का फायदा उठाया गया । जो भी पढ़ा गया उसे वर्ष के अंत में होने वाले इम्तिहान से जोड़ा गया । जो पढ़ा गया उनके मायनों को नहीं समझा गया ।
 फिर जब किशोर सोच विकसित हुई । नजरें स्कूली किताबों के अलावा दूसरी किताबों व पत्र - पत्रिकाओं पर पड़ने लगी । कोटा शहर की भीड़ में एकान्त मिला तब सोचा कि मैं जो कर रहा हूँ इसके मायने क्या हैं? खुशी इस बात की  हैं कि कोटा पढ़ रहा हूँ । इस बात की क्यों नहीं कि IIT की तैयारी कर रहा हूँ?  लगा शायद गलत जगह आ गया था ।

 एक साल बाद वहाँ से सामान बाँधने का मन बनाया और वहाँ से चल दिया , अपने घर की ओर  ।
  हाँ,  बहुत धन खर्च हुआ लेकिन मेरी खुशी से ज्यादा नहीं ।
 मैं घरवालों को झूठी खुशी नहीं देना चाहता था कि हमारा बेटा कोटा रह कर IIT  की तैयारी रहा है,  जिससे वह , यह बनेगा,  वह बनेगा ।
उनके ऐसे ख्वाब टूट जाते , जब मेरे IIT(jee)  का रिजल्ट आता । उससे बेहतर की इसे छोड़ दूँ, ,,
अगर मन मारकर पढ़ाई करके IIT में प्रवेश पा भी लेता तो क्या,  खुद खुश रह पाता  ? घरवालों को खुशी दे पाता ।
 बेहतर समझा की क्षणिक खुशी की बजाय अल्प ही सही सतत् खुशी को चुना जाए ।
  वो एक लम्बा व भौतिकता भरा सफर छोड़ वापस रूख किया, ,,पश्चिमी राजस्थान के छोटे से शहर, अपने शहर बाड़मेर की ओर । मुझे पता था कि लोग भिन्न - भिन्न दोष लगाएगे, ,, पागल, बेवकूफ ना जाने कैसे - कैसे ? लेकिन मैं उनके लिए तो नहीं जी रहा, , हाँलाकी वो मेरा बुरा नहीं चाहते,  मेरा अच्छा ही चाहते है मगर मेरी मानसिकता बहुत अलग हैं, , इसी लिए उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाए बिना, , सहर्ष दोष स्वीकारता गया । जब उनका दौर खत्म हुआ, , तब बस देश के इस कोने में बैठ लिखने लगा । खुद के लिए भी सोचता हूँ मगर पहले बस लिखता हूँ ।
 विज्ञान के उलझनों को सुलझाने के तरीके अच्छे लगते है मगर पेड़ से फल नीचे कैसे गिरा ?  इससे ज्यादा दिलचस्पी परिवार से कोई अपना अलग किस ऋणात्मक बल के कारण हुआ ।
 रसायन के अणु - परमाणु बंधो को पढ़ते - पढ़ते,  इंसानों के टुटते बंधन खटकने लगे ।
  इसी चक्कर में भौतिक विज्ञान से भावनात्मक विज्ञान की ओर रूख होने लगा । सच बताए इसी मैं मजा आने लगा ।
 आजकल यही काम कर रहा हूँ । आर्थिक सुख तो नहीं मिलता परंतु इन बंधनों को जोड़ने की कोशिश के मेहनताने स्वरूप अजीब सा आनंद मिल जाता है उसी से खुश हो जाता हूँ ।
  मुझे बदलने की नहीं बढ़ोतरी की सलाह दीजिए ।।
क्योंकि खुद को ऐसा बनाने के लिए काफी समय व घरवालों के , धन के साथ ख्वाब कुर्बानी हुए हैं ।
फिर भी इन सबके लिए सबका धन्यवाद ।।
                  * छगन चहेता
[कोई प्रोफेशन बुरा नहीं होता,  बस प्रकृति अपनी - अपनी होती है, , हम शायद गलती से घुस गये थे, ,, फिर भी जितना वक्त दिया, , मजेदार था,,।  मनाली मनभावन हैं तो क्या ?  घर  लौटना तो पड़ेगा ।]

Sunday, 1 April 2018

ग़ज़ल - " वक्त " ।।छगन चहेता ।।

वक्त,  वक्त पर बदलता रहता है ।
कभी इसका,  कभी उसका होती रहता है ।।

जवानी के सपने में भी ,
मुहब्बत का दर्द देता रहता है ।।

सुनहरे बालों को सफेद करके ।
वक्त,  वक्त पर रंग बदलता रहता है ।।

हमें जिन्दगी की भूलभुलैया में फंसा ,
खुद निकलता रहता है  ।।

इंसा से सबकुछ लुटके भी ,
सरेआम, ये घूमता रहता है ।।

कहते हैं , बड़ा किमती है वक्त ,
मगर ये तो यूँ ही गुजरता रहता है ।।

माना ठहरना फितरत ना तेरी ,
मगर इंसान को क्यों भगाता रहता है ।।

कौन हैं ये ईश्वर, अल्लाह
ये वक्त ही हैं जो बनाके , बिगाड़ता रहता है ।।

चुप क्यों 'छगन' तू रहता है ।
तेरा वक्त भी तो कुछ कहता रहता है ।।
                       
                  * छगन चहेता

डायरी : 2 October 2020

कुछ समय से मुलाकातें टलती रही या टाल दी गई लेकिन कल फोन आया तो यूँ ही मैं निकल गया मिलने। किसी चीज़ को जीने में मजा तब आता है जब उसको पाने ...